भारत में चुनावी वर्ष नज़दीक आते ही राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आने के लिये लोक-लुभावनी घोषणाएँ करने लगती हैं, जैसे मुफ्त में बिजली-पानी, लैपटॉप, साइकिल आदि देने के वायदे करना आदि। यह प्रचलन लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिये सभी को समान अवसर मिलने के मूल्य के उल्लंघन को तो दर्शाता ही है, साथ ही सत्ता में आने पर जब सरकार नागरिकों के कर से निर्मित ‘लोकनिधि’ से ही अपने वायदे पूरे करती है, तो निधि के इस दुरुपयोग से विकास की गति भी धीमी पड़ती है। अरे! तुम क्या जानो/ तुम्हारी जान और इज्जत/ बदन की खाल, मुफ्त में खिंचवाते हैं/ शोर न उठे तुम्हारे संहारो का/ दूसरा मुद्दा ले आते हैं/ आरक्षण और संविधान को भी/ मन भर गरियाते हैं/ समय समय पर/ जोर-जोर लतियाते हैं/ और तो और! समाज का दुश्मन/ तुमको ही बतलाते हैं/ इसीलिए तो चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं/ रही सही अब सारा काम/ प्रशासन और मीडिया से करवाते हैं/ तभी तो मुद्दों से हटकर/ नई मुद्दा खड़ा करवाते हैं/ पीठ में पड़ी डंडे की मार/ उसपर भी परत चढ़ाते हैं/ तुम ठहरे सपने सजोने वाले/ कागज के लुभावने वायदों/ दारू साड़ी में बिक जाते हो/ इसीलिए तो/ चुनावी घोषणा पत्
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