भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में कई वर्ष बाद बदलाव के संकेत नजर आ रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट 'ट्रेंड ऐंड प्रोग्रेस ऑफ बैंकिंग इन इंडिया 2018-19' यह बताती है कि बैंकों की ऋणग्रस्त परिसंपत्तियों में कमी आई है और परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में गिरावट भी थमी है। यही कारण है कि वर्ष 2011-12 के बाद पहली बार अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की समेकित बैलेंस शीट में सुधार देखने को मिला है। इसके अलावा बैंकिंग जगत का वित्तीय प्रदर्शन भी सुधरा और तीन वर्ष के अंतराल के बाद सरकारी बैंकों ने चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में शुद्ध मुनाफा कमाया।
परंतु सरकारी बैंकों के लिए अभी भी चिंतित होने की पर्याप्त वजह है। न केवल फंसे हुए कर्ज (एनपीए) का ज्यादा हिस्सा उनके पास है बल्कि वे निजी बैंकों के हाथों तेजी से कारोबार भी गंवा रहे हैं। उदाहरण के लिए समीक्षा अवधि के दौरान सावधि जमा में हुई वृद्धि में निजी बैंकों की हिस्सेदारी करीब 77 प्रतिशत रही। निजी बैंकों में इसका स्तर 2011-15 के 19 प्रतिशत से बढ़कर 2016-19 में 81 फीसदी हो गया। बैंकिंग परिसंपत्तियों में एक तिहाई से भी कम भागीदारी के बावजूद निजी बैंक वर्ष 2018-19 में ऋण में हुई वृद्धि में से 69 फीसदी के हिस्सेदार रहे। कुल बकाये में भी निजी बैंकों की हिस्सेदारी बढ़ रही है। इस बदलाव की वजह समझना कठिन नहीं है।
निजी क्षेत्र के बैंक अपेक्षाकृत किफायती हैं और वे बेहतर सेवाओं और आकर्षक जमा दर के साथ ज्यादा राशि जुटा रहे हैं। इतना ही नहीं, उच्च जमा दर उनके मार्जिन पर असर नहीं डाल रही है। निजी क्षेत्र के बैंक सरकारी बैंकों की तुलना में अधिक विशुद्ध ब्याज मार्जिन रखते हैं। यहां भी दोनों में बड़ा अंतर है। वर्ष के दौरान सामने आए धोखाधड़ी के मामलों में से 90 प्रतिशत सरकारी बैंकों में हुए। केंद्रीय बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्याप्त आंतरिक प्रक्रिया के अभाव और प्रक्रियात्मक जोखिम से निपटने में सक्षम लोगों और तंत्र की अनुपस्थिति से ऐसा हुआ।
निजी बैंकों की बढ़ती हिस्सेदारी का सिलसिला आगे जारी रहेगा और इसकी कई वजह हैं। बढ़ा हुआ एनपीए सरकारी बैंकों के लिए बड़ी बाधा बना रहेगा और सरकार ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह अनंत काल तक इन बैंकों में भारी-भरकम पूंजी निवेश करती रहे। दूसरी ओर, भले ही कुछ निजी बैंकों में समस्याएं रही हैं लेकिन वे अभी भी बेहतर स्थिति में हैं। वहां शीर्ष प्रबंधन आसानी से बदल सकता है और निजी बैंक पूंजी जुटाने तथा बैलेंस शीट विस्तार के मामले में भी बेहतर स्थिति में हैं।
बहरहाल, यह बात ध्यान देने वाली है कि निजी बैंकों के पक्ष में हो रहा यह बदलाव सरकारी बैंकों के मूल्यांकन को भी कम करेगा। व्यापक स्तर पर देखें तो सरकारी बैंकों की कमियां तंत्र में ऋण की उपलब्धता को भी प्रभावित करेंगी और आर्थिक वृद्धि को बाधित करेंगी। ऐसे में सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह संचालन संबंधी सुधार लागू करके सरकारी बैंकों को निजी बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा के लायक बनाए। भारत से जुड़ी अपनी ताजा रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी सरकारी बैंकों में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया है। उसका यह कहना सही है कि सुधारों के अभाव में विलय से जरूरी मुद्दे हल नहीं होंगे और बड़े और कमजोर बैंक सामने आने की आशंका बढ़ जाएगी। विलय होने से मूल कारोबार से भी ध्यान हट सकता है और ऋण क्षमता प्रभावित हो सकती है। सरकार (पढ़ें करदाताओं) और सरकारी बैंकों के हाथ से समय बहुत तेजी से निकल रहा है।