बीते 23 दिसंबर को झारखंड विधानसभा चुनाव का जो परिणाम आया है वो कई मायनों में महत्वपूर्ण है और इस तरह के परिणाम के कई सारे कारण हैं. याद रहे कि साल 2000 में राज्य के निर्माण के बाद ये पहला चुनाव है जब किसी ग़ैर-भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला है.
और ऐसा लग रहा है कि आने वाले पांच सालों के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की अगुवाई वाला गठबंधन जिसमें कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) भी शामिल हैं, एक स्थायी सरकार दे पाएगा. ये भी याद रहे कि राज्य बनने के बाद बीते 19 सालों में 16 साल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा ने राज किया है।हरियाणा विधानसभा चुनाव में ख़राब प्रदर्शन, महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बाद पर्याप्त संख्याबल के बिना आननफानन सरकार बनाने के बाद सत्ता छोड़ना और उससे पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हारने के बाद झारखंड के हालिया चुनाव परिणाम भाजपा के लिए ख़तरे की घंटी की तरह लगने लगे हैं.ऐसा लग रहा है कि झारखंड चुनाव परिणाम का असर आने वाले दिनों में दिल्ली और बिहार में होने वाले चुनावों पर भी पड़ सकता है. दिल्ली में आने वाली फ़रवरी और बिहार में अक्टूबर 2020 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.
नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी ख़िलाफ़ जनमत संग्रह?
चुनाव परिणाम आने के बाद एक सवाल जो बार-बार पूछा जा रहा है वो ये कि क्या इन नतीजों को नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़ जनमत संग्रह समझा जाए?
मेरी समझ में ऐसा करना सबसे बड़ी भूल होगी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा के नेतागण, ख़ासतौर पर उनके स्टार प्रचारक और शीर्ष नेतृत्व, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने झारखंड चुनाव प्रचार के आख़िरी चरणों में इसकी भरपूर कोशिश की थी सीएए और एनआरसी मुद्दा बन जाए. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और मतदाता ये लगभग तय कर चुके थे कि किसको और किन-किन मुद्दों पर वोट करना है.
यहां ये बात भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि कथित राष्ट्रीय मुद्दों पर जनता भाजपा को लोकसभा चुनाव में भरी मतों से जीता चुकी थी. चुनाव प्रचार के दौरान ज़्यादातर मतदाताओं का यही कहना था कि इस चुनाव में वे स्थानीय मुद्दों पर वोट करेंगे.
उनका ये भी कहना था कि मोदी जी के अच्छे कामों के लिए वे उन्हें पहले ही जिता चुके हैं. साथ में ये बात भी याद रखने की ज़रूरत है कि विपक्ष ने ये चुनाव स्थानीय समस्याओं को मुद्दा बनाकर लड़ा और जीता.
फिर भाजपा क्यों हारी?
पिछले पांच वर्षों में आदिवासी अधिकारों पर हमला, भुखमरी, बेरोज़गारी, मॉब-लिंचिंग जैसे अहम मुद्दों पर स्थानीय जनता में ज़बरदस्त आक्रोश देखा गया था.
ख़ासतौर आदिवासियों में राज्य की रघुबर सरकार को लेकर ज़बरदस्त आक्रोश था. और यही वजह है कि तमामतर कोशिशों के बावजूद राम मंदिर, तीन तलाक़, सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दे स्थानीय मुद्दों के सामने नहीं टिक पाए.
इसके अलावा महत्वपूर्ण विपक्षी पार्टियों का सही समय पर एक साथ आ जाना और गठबंधन बना लेना भी भाजपा के खिलाफ काम किया. इससे जनता में ये संदेश साफ हो गया कि राष्ट्रीय स्तर के विपरीत राज्य स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक मज़बूत विकल्प मौजूद है, जिसे वोट किया जा सकता है.
साथ ही यह संदेश भी गया कि रघुबर दास के मुक़ाबले में हेमंत सोरेन एक पॉपुलर नेता के तौर पर उभरे, जो अगले पांच साल के लिए राज्य का कार्यभार संभाल सकते हैं.
दूसरी तरफ़ ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी के साथ भाजपा का गठबंधन टूटने का पार्टी को बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा.
ये सही है कि आजसू हालिया चुनाव में सिर्फ़ दो सीट जीत पाई लेकिन चूंकि पार्टी ने 50 से ज़्यादा सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया था उसकी वजह से भाजपा को बहुत नुकसान हुआ.
यही नहीं भाजपा ने जिन विधायकों को टिकट नहीं दिया था उनके स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लड़ने या दूसरे दलों (जैसे आजसू) के टिकट पर लड़ने से भी पार्टी को नुकसान हुआ.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण जमशेदपुर में देखने को मिला, जहां भाजपा पूर्वी और पश्चिमी दोनों सीटें हर गई. पूर्वी सीट पर निवर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास को पूर्व भाजपा नेता और रघुबर सरकार में मंत्री सरयू राय ने पराजित किया. जबकि पश्चिमी सीट जहां से पिछले चुनाव में सरयू राय भाजपा के टिकट पर जीते थे, वहां इनकी बग़ावत की वजह से इस बार वो सीट कांग्रेस के खाते में चली गई.
हेमंत सोरेन के समक्ष चुनौतियां
आने वाले 29 दिसंबर को हेमंत सोरेन राज्य के नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेंगे. अगला पांच साल उनके लिए शायद उनने चुनाव जीतने से भी ज़्यादा मुश्किल होने वाला है.
लोगों की आशाओं पर खरा उतरते हुए एक स्थायी सरकार दे पाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. जो वादे उन्होंने और उनकी नेतृत्व वाले गठबंधन ने किए हैं उनको साकार करना उनकी पहली चुनौती होगी.
आज के समय में राज्य के अंदर आदिवासी अधिकारों पर लगातार हमला, भुखमरी, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ फ़र्ज़ी मुकदमें, बेरोज़गारी, मॉब-लिचिंग, धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ ज़्यादती, दलितों का शोषण और जल-जंगल ज़मीन की लूट जैसी समस्याओं से जूझ रहा हैं. इस बार के चुनाव में ज़्यादातर लोगों ने इन्हीं समस्याएं के निपटारे के उम्मीद के साथ वोट किया है.
ऐसे में नई सरकार के समक्ष आदिवासियों के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की दोबारा बहाली एक बड़ी चुनौती होगी. ऐसा करने के लिए सरकार को सबसे पहले पत्थलगढ़ी आंदोलन में भाग लेने वाले कार्यकर्ताओं के अलावा खूंटी और आसपास के आदिवासियों पर लगाए गए फ़र्ज़ी मुकदमे वापस लेने होंगे.
इसी तरह भुखमरी और मॉब लिंचिंग की वजह से मारे गए और प्रभावित लोगों को न्याय दिलवाना एक अहम काम होगा. और ये भी सुनिश्चित करना होगा कि ये घटनाएं उनके कार्यकाल में न हो.
इसके अलावा रोज़गार सृजन, पारा-शिक्षकों को स्थायी करना जैसे दूसरे अहम मुद्दों पर भी तत्काल ध्यान के साथ ही धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा का माहौल प्रधान करना भी नई सरकार को अपनी प्राथमिकता में शामिल करना पड़ेगा.