दिल्ली की एक अदालत ने दंगा मामले में प्राथमिकी दर्ज किये जाने के महीनों बाद भी जांच में कोई प्रगति नहीं दिखने पर मंगलवार को पुलिस को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि‘‘यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।‘‘ अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने यह टिप्पणी तब की जब उन्हें अवगत कराया गया कि नासिर अहमद नामक व्यक्ति की शिकायत पर जून 2021 में दर्ज मामले की जांच में कोई प्रगति नहीं हुई है और यहां तक कि प्राथमिकी में नामित व्यक्तियों से पूछताछ भी नहीं की गई है।
न्यायाधीश ने कहा,‘‘यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।‘‘ उन्होंने कहा कि न तो दिल्ली पुलिस आयुक्त और न ही दंगा मामलों की जांच की निगरानी के लिए नवगठित विशेष जांच प्रकोष्ठ (एसआईसी) का इस मामले पर ध्यान गया। उन्होंने कहा कि पुलिस दावा कर रही है कि फरवरी 2020 में दंगों के दौरान और उसके बाद के चार सप्ताह तक परिस्थितियां कठिन थीं, इसके बाद एक महामारी आई जिसके कारण वह मामलों की ठीक से जांच नहीं कर सकी। उन्होंने अभियोजक को सुनवाई की अगली तारीख पर पुलिस द्वारा की गई जांच के बारे में अदालत को बताने का निर्देश दिया और आदेश की प्रति पुलिस आयुक्त को उनके संदर्भ के लिए भेजने व उचित कदम उठाने के लिए कहा। दिल्ली के भागीरथी विहार इलाके के निवासी नासिर अहमद ने दावा किया कि वह 24 और 25 फरवरी को सांप्रदायिक दंगे के दौरान गोकलपुरी टोल-टैक्स के पास दंगा कर रहे 200-250 लोगों की भीड़ में से विभिन्न व्यक्तियों को पहचानता है। उसने दावा किया कि 24 फरवरी को, भीड़ ने दूसरे समुदाय के लोगों के घरों और दुकानों में तोडफ़ोड़ , लूटपाट और आगजनी का आह्वान किया। साथ ही उसने दावा किया कि पुलिस भीड़ के साथ थी। उसने दावा किया कि भीड़ ने कथित तौर पर उस इलाके से गुजरने वाले लोगों को रोका और अगर वे दूसरे समुदाय के पाए गए, तो उन्हें पीट-पीटकर घायल कर दिया तथा उनके वाहनों को जला दिया। उसने दावा किया कि 25 फरवरी को भीड़ ने उसके गोदाम और तीन बाइक में आग लगा दी। दोनों तारीखों पर उसने कई बार पुलिस को फोन किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अहमद ने इसके बाद पुलिस से कई बार शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसे धमकियां भी मिलीं, जिसके बाद जिले की गवाह सुरक्षा समिति ने पुलिस से उसे सुरक्षा मुहैया कराने को कहा। फिर उसे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए बाध्य होना पड़ा, जहां पहली बार अभियोजक ने कहा कि उसकी 18 मार्च की शिकायत को दो अलग-अलग मामलों के साथ जोड़ दिया गया है।
इसके बाद, अहमद ने अपने मामले में एक अलग प्राथमिकी दर्ज करने और अपनी शिकायत को किसी अन्य मामले में शामिल नहीं होने देने के लिये जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने 26 अक्टूबर को उसकी याचिका को स्वीकार कर लिया और पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया। हालांकि, पुलिस ने उस आदेश को चुनौती दी, जिसे 26 अप्रैल को एएसजे यादव ने खारिज कर दिया। उन्हें एक अलग प्राथमिकी दर्ज करने के लिए कहा गया, जो अदालत के निर्देशों के लगभग दो महीने बाद जून में दर्ज की गई। अदालत अब 22 अक्टूबर को मामले की सुनवाई करेगी।
दोषी पुलिसकर्मी के वेतन से 5000 रुपये की कटौती का दिया आदेश
दंगों के एक मामले में दिल्ली पुलिस के 'बहुत ही लापरवाह तरीके से' सुनवाई स्थगित करने के अनुरोध से नाराज एक स्थानीय अदालत ने पुलिस आयुक्त को इसकी जांच करने और दोषी अधिकारी के वेतन से 5,000 रुपये काटने का निर्देश दिया। मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अरुण कुमार गर्ग ने उसके पिछले आदेश का अनुपालन करने में पुलिस के विफल रहने के बाद जुर्माना लगाया। अदालत ने पिछले आदेश में जांच अधिकारी (आईओ) को एक आरोपी को ई-चालान की एक प्रति प्रदान करने का निर्देश दिया था और पुलिस ने इसकी प्रति उपलब्ध कराने के लिये मामला स्थगित करने का अनुरोध किया था। न्यायाधीश ने कहा, 'इन परिस्थितियों में, 12 अप्रैल, 2021 के आदेश के अनुपालन के लिए स्थगन का अनुरोध स्वीकार किया जाता है बशर्ते दिल्ली पुलिस द्वारा प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में 5,000 रुपये जुर्माना जमा कराया जाए।’’ न्यायाधीश ने कहा कि विशेष लोक अभियोजक (एसपीपी) और आईओ निर्धारित तारीखों पर मामलों में पेश नहीं होते हैं और जब वे पेश होते हैं, तो फाइल का निरीक्षण किए बिना पेश हो जाते हैं और फिर 'बहुत ही बेढंगे तरीके से’’ सुनवाई स्थगित करने का अनुरोध करते हैं।