23 अप्रैल 1930 का दिन अविभाजित भारत के स्वतंत्रता संघर्ष और
क्रांतिकारी इतिहास में अद्भुत स्थान रखता है। उस दिन पख्तूनों ने पूर्ण
संकल्प एवं जोश के साथ स्वतंत्रता का नारा लगाया। उन्होंने अपनी छातियों
पर गोलियों के निशान सहे। इतने वर्ष बीत जाने पर भी किस्सा ख्वानी
की भयंकर दुर्घटना भुलाई नहीं जायेगी।
बाजार
उसकी कहानी इस प्रकार है कि सरहद प्रांत की कांग्रेस ने अपनी
एक सभा में निश्चय किया कि शराब खानों पर विकेटिंग की जाए और
विदेशी माल के बाइकाट का आंदोलन चलाया जाए और नमक बनाया जाए।
इस उद्देश्य के अनुसार एक कौंसिल का गठन किया गया। कौंसिल के
सभापति खान बादशाह थे। मौलाना अब्दुर्रहीम पोपलज़ई, अल्लाह बख़्श
बर्की और गुलाम रब्बानी उसके मुख्य सदस्य थे। जब इसकी सूचना प्रशासन
को मिली तो उसने गिरफ्तारियां प्रारंभ की। 22 और 23 अप्रैल की मध्य
रात्रि को पकड़-धकड़ का सिलसिला चलता रहा। मौलाना पोपलज़ई गिरफ्तार
कर लिय गए। 23 अप्रैल की सुबह कांग्रेस के दफ्तर से अल्लाह बख़्श बर्की
और गुलाम रब्बानी सभी को गिरफ्तार कर लिया गया।
उस समय विशाल भीड़ एकत्र हो गईं। उस भीड़ ने खिदमतगारों
गाड़ी के टायर काट दिए। डिप्टी कमिश्नर ने क्रोध में आकर फौजी हेड
क्वार्टर को सूचना दे दी और देखते ही देखते बख़्तरबंद गाड़ियां और
मशीनगर्ने दनदनाती हुई काबली दरवाज़े से अन्दर आ गई। खिदमतगारों
ने बांह में डालकर एक दीवार खड़ी कर दी। यह दीवार मशीनगनों से
कुचल दी गई, खून से लथ-पथ मानव शरीरों की दीवार तो गिर गई, लेकिन
सिपाहियों का दम सूख गया।
उसी समय एक युवक ने मशीनगन के नीचे वाली पेट्रोल टंकी
काटकर उसमें आग लगा दी। यह युवक पुलिस की गोली का निशाना बन
गया। मशीनगर्ने चलने लगीं। चार गोरे सिपाहियों की लाशें ज़मीन पर बिछ
गईं। एक फौज़ी अफसर की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी गई। आग और खून
की होली खेली जाने लगी। एक हारमोनियम बजाने वाले को मशीनगन से
उड़ा दिया गया। एक मासूम लड़का तेल की बोतल लिए जा रहा था, उसे
एक जहरीली बछ से छेद कर मार दिया गया। अब यह भीड़ किस्सा ख्वानी
|• बाज़ार से "चौक यादगार" की ओर बढ़ती चली जा रही थी। यहां गोरे
सिपाहियों ने पहले ही से बंदूकें तान रखी थीं। मकानों की छतों और
दालानों में गोरे सिपाही बंदूकें ताने इशारे की प्रतीक्षा में थे।
इन्कार
उस अवसर पर गढ़वाली फौज के जवानों ने गोली चलाने से इ
कर दिया। इसके बाद उन फौजियों को कैदखानों में डाल दिया गया।
गढ़वाली फ़ौजियों के इन्कार पर गोरे सिपाहियों में खलबली मच गई।
अंग्रेज़ फौजियों को यह कहते हुए भी सुना गया कि “हम इधर से जा रहा है,
तू अपना घर संभालो।'’ और उसी समय सारी की सारी फ़ौज लौट गई और
यह सब कुछ गढ़वाली फ़ौजी सिपाहियों के अद्भुत बलिदान का परिणाम था।
चौक बाज़ार और किस्सा ख़्वानी बाज़ार गोरे फौजियों से खाली हो
गया। थाने बंद हो गए और पुलिस का पहरा समाप्त हो गया। और ऐसा
प्रतीत होने लगा जैसे यहां कभी अंग्रेजी प्रशासन था ही नहीं। पांच दिनों तक
जनता का प्रशासन रहा। शहर का प्रबंध एवं व्यवस्था राजनीतिक और
सामाजिक वर्गों के हाथ में रहा। यह पांच दिन सुनहरे दिन थे। मगर यह
पांच दिन की आज़ादी बहुत महंगी पड़ी। पांच दिन के बाद फिर अंधाधुंध
गिरफ्तारियाँ, मार-पीट, घरों की तलाशियां होने लगीं। कांग्रेस, खिलाफत
कमेटी और अन्य राजनीतिक दलों को गैर कानूनी ठहराया गया। उन दलों
पर यह आरोप लगाया गया कि कांग्रेस कमेटी ने हाज़ी तरंगज़ई से सांठ-गांठ
की हुई है और हाजी साहब एक लाख सैनिकों के साथ अंग्रेज़ी प्रशासन पर
आक्रमण करने वाले हैं।
23 अप्रैल की रात्रि को ही किस्सा ख्वानी बाज़ार में शहीदों की
यादगार बना दी गई। उसे बनाने वाले पेशावर के फ्रूट मर्चेंट आशिक हुसैन
ख़ाँ थे। दूसरे दिन प्रशासन ने उस यादगार को गिरा दिया, लेकिन लोगों के
दिलों से शहीदों की याद न मिट सकी और कुछ ही दिनों के बाद यह
यादगार फिर बना दी गई। लाल रंग की यादगार ।
किस्सा ख्वानी बाज़ार की खून रुला देने वाली घटना कभी भलाई
नहीं जा सकती। जलियाँवाला बाग़ के बाद यह दूसरी दिल दहलाने वाली
घटना थी, जिसने सारे देश में आजादी की नई रूह फूंक दी। पख्तनों के
लिए यह स्वतंत्रता अंधेरे में बदल गई। देश का विभाजन हो गया। कुछ
हो किस्सा ख्वानी बाज़ार की याद दिलों से निकल नहीं सकती।